नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अंबर मित्र जीत”
“आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि का नैमीशरण्य द्वीप की राजधानी ओदंतपुरी में आगमन और भव्य स्वागत।”
सुबह हो चुका है । बाबा शांडिल्य ऋषि कुसुमपुर के नजदीक वाले तुलसी उद्यान में बैठे। बाबा शांडिल्य ऋषि हर दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में ही जागते हैं । उसके बाद नदी से स्नान कर सफेद वस्त्र धारण करके । अपने कमंडल लेकर तुलसी उद्यान में बैठकर । भगवान शिव की आराधना कर रहे हैं। अब काफी समय बीत चुका है। तभी नैमिषारण्य द्वीप से कई रथो के साथ वहां के राजा वीरभद्र का आगमन होता है। सभी लोग आश्रम की तरफ पहुंचे हुए हैं, और कुछ लोग बाहर वाले पीपल के पेड़ के नीचे वाले चबूतरे पर बैठ कर राजा की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वही है राजा अंदर की तरफ प्रवेश करता हुआ चला रहा है। तभी कुसुमपुर का एक शिष्य लोकनाथ से उनकी मुलाकात हो जाती है। लोकनाथ राजा वीरभद्र से बातें करते हैं।
नैमिषारण्य द्वीप का राजा वीरभद्र उपाचार्य लोकनाथ को देखकर दूर से ही झुक कर प्रणाम किया।
वही उपाचार्य लोकनाथ भी राजा के आगे , झुक कर दोनों एक दूसरे को हाथ जोड़कर बिल्कुल उसी मुद्रा में जिस मुद्रा में राजा वीरभद्र ने प्रणाम किया। उन्हें अभिनंदन करते हैं।
फिर राजा वीरभद्र बोले। प्रभु ! आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि से मिलने आए हैं। मेरे यहां महामृत्युंजय यज्ञ करवानी है। अतः, आप कृपा करके। हमें उनसे मिलाएं।
तभी उपाचार्य बोले।” आइए। राजन ! मैं आपको लिए चलता हूं।
इस तरह से आगे – आगे उपाचार्य लोकनाथ तथा उसके पीछे वीरभद्र, तथा उनके सेनापति और सहयोगी लोग चलने लगे चलते हुए। ये सभी तुलसी उद्यान की तरफ गए । वहां तुलसी उद्यान के द्वार पर जब पहुंचे। तब बाबा शांडिल्य ऋषि सफेद वस्त्र में पद्मासन लगाए। ध्यान मग्न है।
तभी, उपाचार्य लोकनाथ बोले। राजन..! हम सबको कुछ देर, बाबा शांडिल्य ऋषि की प्रतीक्षा करनी होगी। क्योंकि, अभी आचार्य ध्यान मग्न हैं। इसलिए, आइए ।हम सब यहीं बैठते हैं।
उपाचार्य लोकनाथ बोले । राजन! अपनी कुशलता सुनाएं। आपके राज के प्रजा और कुटुंब सभी कुशल मंगल है ना…?
राजा वीरभद्र बहुत ही उदास स्वर में बोले।” नहीं प्रभु..! सब कुशल नहीं है। मेरा पुत्र चंद्रादित्य जिंदगी और मौत की सांसे गिन रहा है। आप लोग आशीर्वाद देकर। उसे आयुष्मान बनाएं।
तभी उपाचार्य लोकनाथ बोले । “सब ईश्वर की कृपा और उन्हीं की माया है । हे राजन..! हाथ जोड़कर उन्हीं के सामने हाथ फैलाए। क्योंकि, हम सब एक तुच्छ मानव हैं ।उनके आगे ना किसी की चली है । ना किसी का चलेगा। परंतु ईश्वर बहुत ही कृपालु और दयालु है। वह सभी को देखते हैं। आपको भी देखेंगे। तुम जिस परेशानी में हो। उस विपदा से शीघ्र ही निकल जाओगे। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं।
तभी बाबा शांडिल्य ऋषि अपनी ध्यान मुद्रा से उठकर। तुलसी उद्यान में तुलसी पत्र तोड़ते हैं। उसके बाद बाबा शांडिल्य ऋषि का ध्यान राजा वीरभद्र की ओर जाता है। राजा वीरभद्र बहुत तेजी के साथ चलकर बाबा शांडिल्य ऋषि का चरण स्पर्श कर, प्रणाम करता है। उनके सभी सहयोगी भी बाबा शांडिल्य ऋषि को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। फिर, राजा वीरभद्र बाबा से आग्रह करता है। गुरुदेव …! अब चले। मेरे नगर में चलने की कृपा करें। अब वह समय आ गया है। तब बाबा मस्तक हिलाकर बोलते हैं। बिल्कुल ! समय आ गया है। कुछ देर बाद। सभी सैनिक अपने- अपने रथ और घोड़े पर सवार हो जाते हैं। बाबा शांडिल्य ऋषि भी एक रथ पर अपने कुछ खास शिष्यों के साथ बैठते हैं ।अब रथ नेमी सारण दीप की राजधानी उदंतपुरी की ओर प्रस्थान करती है। अब राजा अपने सैनिकों के साथ बाबा शांडिल्य ऋषि को लेकर चलता हुआ। कई घंटों के यात्रा के बाद। ये सभी रथ नैमिषारण्य द्वीप की राजधानी ओदंतपुरी पहुंचने के बाद। वहां बाबा शांडिल्य ऋषि राज महल में प्रवेश करने के लिए। जैसे ही रथ से नीचे उतरते हैं। वहां राजा कि दोनों पत्नियां उर्मिला और तारा। अपने सहेलियों और दासियों के साथ बाबा का भव्य स्वागत करने के लिए तैयार बैठे हैं। राजमार्ग से बहुत दूरी पर, राजा का राजमहल है। वहीं से अनेकों तरह के फूल बिछाए गए हैं ।अनेकों तरह के बिलासी वस्तुएं हैं। तथा एक बहुत ही खूबसूरत पंडाल बनाया गया है। बाबा जैसे ही नैमिषारण्य द्वीप की राजधानी ओदंतपुरी की धरती पर अपना चरण रखते हैं। वहां के सभी प्रजा झूम उठते हैं। बहुत बड़ी जनसंख्या इन्हें देखने के लिए पहुंची हुई है। हर तरह राजा और बाबा शांडिल्य ऋषि की जय जयकार की ध्वनियां गूंज रही हैं । बाबा शांडिल्य ऋषि यह देखकर बहुत ही प्रफुल्लित हो रहे हैं। तभी सबसे पहले बाबा नैमिषारण्य द्वीप की राजधानी ओदंतपुरी की भगवान विष्णु की श्री चतुर्भुजम् नाम की मंदिर में जाकर पूजा अर्चना करते हैं। भगवान विष्णु को जलाभिषेक एवं फुल पतियों को चढ़ाकर वहां बहुत बड़ी अवधि तक स्तुति और आरती करते हैं। पूरे गांव के लोग बाबा के साथ। इस पूजा में शामिल होते हैं। राजा- रानी, प्रजा , मंत्री, सेना पूरे नैमिषारण्य के लोगों का बाबा शांडिल्य ऋषि से यही उम्मीद और यही आशा है कि बाबा शांडिल्य ऋषि, किसी भी तरह से नैमिषारण्य के राजा के पुत्र राजकुमार चंद्रादित्य को मृत्यु से बचाएंगे। क्योंकि, बाबा का नाम सभी दिशाओं में एक प्रमुख आचार्य के रूप में भी विख्यात है। और तो और, बाबा शांडिल्य ऋषि की कीर्ति । बहुत दूर-दूर तक फैली है। बाबा शांडिल्य ऋषि जैसे ही राजमहल पहुंचते हैं । राजा, बाबा से अनुरोध करता है कि विश्राम कर लें परंतु, राजा वीरभद्र को बाबा शांडिल्य ऋषि आदेश देते हैं। और वे बोलते हैं ।”नहीं ! राजन ! मैं विश्राम के लिए नहीं आया हूं। मैं तुम्हारे पुत्र राजकुमार चंद्रादित्य की जीवन को बचाने आया हूं ।अतः, तुम मेरी मानो । आज से ही यज्ञ की प्रारंभ की जाए। मैं जैसा कहता हूं । वैसा सुनो । राजा वीरभद्र, हाथ जोड़कर वहां उपस्थित होता है। तभी, बाबा शांडिल्य ऋषि, राजा वीरभद्र को बोले। राजन ! नवग्रह की लकड़ियों के साथ बेदी और चंदन की लकड़ी का इंतजाम किया जाए। भगवान शिव की स्वर्ण प्रतिमा की व्यवस्था की जाए। और मुझे सरोवर के बीचों बीच यज्ञ वेदी के साथ बैठने का प्रबंध किया जाए। और ढेर सारे प्रबंध । जो मैं बताता हूं।आज शाम तक होनी चाहिए। सूर्यास्त के पहले। मैं इन सभी चीजों को देखना चाहूंग ।राजा वीरभद्र बहुत ही शीघ्रता के साथ। अपने विशेष सहयोगयों को लेकर। बाबा के द्वारा बताए गए । सभी बातों का अनुसरण करते हुए। बाबा को अपने राज्य के पूर्व में अवस्थित। एक बहुत ही खूबसूरत सरोवर। जहां आम और अनेकों प्रकार के दूसरे पेड़ पौधे और फूल हैं ।जो एक सरोवर के वृत्ताकार रूप से लगाए गए हैं। वह सरोवर बहुत ही खूबसूरत स्वर्ग की भांति पवित्र और स्वच्छ जल से पूर्ण है । तथा सरोवर के बीचों बीच। एक बेदी और मुख्य आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि को बैठने की व्यवस्था की गई है। और हर जगह जैसे बाबा शांडिल्य ऋषि ने आज्ञा दिया। उसी तरह राजा वीरभद्र के राजमहल से लेकर उस सरोवर के पास वाले उपवन तक। कई बेदी बनाए गए। और हर तरह की व्यवस्था के साथ । बड़ी मात्रा में चंदन की लकड़ियों और हुमाद तथा शमी की लकड़ी। आम की लकड़ी , पान के पत्ते, आम्र पत्र। तथा कमल गट्टा। अनेकों तरह की वैदिक यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले वस्तुओं का प्रबंध किया गया। उस दिन शाम होने के बाद। बाबा सो गए। सभी लोग चैन की नींद सोए। और इस उम्मीद में सोए कि अब राजा वीरभद्र का पुत्र राजकुमार चंद्रादित्य बच जाएगा। सुबह होते ही बाबा शांडिल्य ऋषि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर । अपने सभी शिष्यों को लेकर । उस सरोवर के आसपास जहां भी वेदिक वेदियां बनाई गई थी। वह यज्ञ की शुरुआत कर ।
“ओम त्र्यंबकम यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम” इस मंत्र के उच्चारण के साथ शुरू कर दिया । यज्ञ लगातार छह: महीने से भी अधिक चलना है। इसी तरह यज्ञ लगातार एक महीने से शुरू है। नैमिषारण्य द्वीप के दिशाओं में बाबा शांडिल्य ऋषि के द्वारा उच्चारण किए गए। इन मंत्रों की ध्वनियों को सुना जा सकता है। हर जगह वैदिकमय वातावरण हो चुका है।
क्रमशः (आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए पढ़ें बारहवां अध्याय। इसी तरह मुझ से जुड़े रहें।)
लेखक :- नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अम्बर मित्र जीत
मिलते हैं। अगले अध्याय में……… शुक्रिया