नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अंबर मित्र जीत
“राजा मित्र जीत का कुसुमपुर से वापस क्रौंच द्वीप की राजधानी लौटना और तीनों रानियों के साथ विचार विमर्श एवं चार ब्राह्मण कन्याओं की खोज।”
जैसे ही क्रौंच द्वीप के राजा मित्र जीत, मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री और सेनापति वीर सिंह अपने अपने रथ पर सवार होते हैं। उसके तुरंत बाद राजा अपने सारथी को चलने की आज्ञा देते हैं। इसके बाद सारथी रथ को आगे बढ़ाने लगता है। जितने भी रथ होते हैं, पैदलसैनिक घोड़सवार सैनिक सभी दक्षिण- पश्चिम की दिशा में क्रौंच द्वीप की राजधानी चंपापुर के लिए प्रस्थान करते हैं। इस बार सभी प्रसन्न दिख रहे हैं। राजा मित्र जीत की प्रसन्नता। उनके चेहरे से साफ दिख रही है। क्योंकि, आचार्य शांडिल्य ऋषि ने राजा के द्वारा देखे गए स्वप्न रूपी सभी समस्याओं का समुचित समाधान कर दिया है। अब रथो की गति धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। अब इन सब का रथ देखते ही देखते बहुत तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। राजा मित्र जीत अपने नेत्रों से पूरी दुनिया को बदला बदला सा महसूस कर रहे हैं। जैसे-जैसे इन का रथ। इनकी राजधानी की ओर बढ़ता जा रहा है। वैसे- वैसे इनका मन प्रफुल्लित हो रहा है। राजा मित्र जीत के मन में बैठे ही बैठे अनेकों तरह के विचार उठ रहे हैं। कभी पुत्र प्राप्ति को लेकर ,तो कभी देखे गए सपना वाली गौ हत्या के समाधान को लेकर। कभी चार ब्राह्मण कन्याओं को लेकर ,तो कभी सपना में ब्राह्मणों द्वारा आशीर्वाद दिए जाने को लेकर। अनेकों प्रश्न भी उठ रहे हैं। बाबा के बताए हुए मंत्रणा के बारे में सोचता हुआ। राजा रथ पर बैठे-बैठे दक्षिण पश्चिम की दिशा में बहुत ही तेजी के साथ चला रहा है। इस बार सेनापति वीर सिंह राजा के रथ से थोड़े आगे वही मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री का रथ भी राजा के से कुछ पीछे है। अब क्रौंच द्वीप की राजधानी बहुत नजदीक है ।तभी राजा को राजमार्ग से सटे कई छायादार वृक्ष दिखाई देते हैं। छायादार वट वृक्षों का बगीचा पास में है। यहां आदिवासियों का एक गांव तथा एक बहुत ही सुंदर सरोवर भी दिखता है। राजा अपने सारथी को तथा सभी सैनिकों एवं मंत्रियों को आज्ञा देता है कि कुछ क्षण के लिए यहां विश्राम कर ली जाए। राजा के आज्ञा मिलने के तुरंत बाद सारे रथ रुक जाते हैं । एक-एक करके सभी लोग सरोवर के पास उतर कर जलपान करते हैं ।और फिर पेड़ों की छाया में बैठकर एक दूसरे से बातें करते हैं । इस बार सेनापति वीर सिंह का रथ राजा के रथ से दो बांस की दूरी पर है। वही मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री का रथ चार वांस पीछे रुका हुआ है। सेनापति वीर सिंह राजा के करीब पहुंच चुके हैं। वहीं पंडित दीनबंधु शास्त्री भी तेजी के साथ राजा के पास पहुंचते हैं। राजा के लिए भी जल का प्रबंध किया जाता है। एक सेवक सरोवर से स्वर्ण पात्र में राजा के लिए जल लाता है। राजा मंत्री और सेनापति सभी वही एक चबूतरा नुमा पत्थर पर बैठकर बातें कर रहे हैं। अब समय हो चुका है। फिर से राजधानी की ओर प्रस्थान करने की। तभी, राजा मित्र जीत अपने मंत्री से बोलता है।”अब हम सभी लोगों को चलनी चाहिए। क्योंकि अब काफी विलंब हो चुका है।”
इसके बाद मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री भी बोलते हैं।” हां !”
उसके बाद सभी लोग अपने-अपने रथ और घोड़े पर सवार होकर। धीरे-धीरे राजधानी चंपापुर की तरफ निकल पड़ते हैं। कुछ ही देर बाद राजधानी चंपापुर के के राज महल के छत पर बैठे हुए सेना। राजा मित्र जीत के रथ और उसके सैनिकों के काफिले को देखकर रानी को जाकर यह सूचना देता है। सैनिक द्वारा रानी को बताया जाता है। राजा सकुशल राजधानी के तरफ से लौट रहे हैं । उसके बाद बिगुल और नगाड़ा बजाने वाला वादक (कर्मचारी) जोर-जोर से बिगुल और नगाड़ा को बजाकर पूरे राजमहल को राजा के आने का संदेश देता है। क्योंकि, क्रौंच द्वीप की पुरानी परंपरा के अनुसार एक साथ बुल और नगाड़ा तभी बनता है। जब या तो युद्ध की घोषणा की जाती है। या कोई आपातकाल की स्थिति उत्पन्न होती हो। अथवा कोई खुशी का पैगाम राज्य के लोगों को दिया जाता है तभी इस माध्यम से एक साथ विगुल और नगाड़ा तेज ध्वनि के साथ बजाई जाती है। राजा की तीनों रानियां स्वर्ग थाल लेकर राजा को आरती उतारती हैं। और राजा अपने तीनों रानियों के साथ राजमहल के आनन्द कक्ष में जाकर मुस्कुराते हुए बहुत ही खुशी के साथ इन सारी बातों को बताते हैं। इधर मंत्री भी विश्राम के लिए अपने कक्ष की ओर निकलता हैं। वहीं दूसरी तरफ सेनापति तथा सभी सैनिक अन्य लोग एक दिन के विश्राम के लिए निकल जाते हैं। शाम होने के बाद रात होता है । उस रात राजा चैन की नींद सोता है। अब सुबह होने वाली है। राजा मंदिर की घंटियों की आवाज से जागत है। जागते ही शिवाले के पुजारी के द्वारा जोर- जोर से गाए जाने वाले शिव तांडव स्त्रोत सुनकर अपने दिन की शुरुआत करता है। कुछ देर बाद राजा अपना एक सेवक को बुलाकर राजा पूरे राज्य में यह घोषणा करवाता है। यदि, कोई ब्राह्मण जिनकी चार पुत्री हो। वह हमें उन पुत्रियों को अपनी पुत्री के रूप में कुशलता और आदर के साथ दे, दे। मैं उनके पुत्री को भविष्य में अपनी पुत्री का दर्जा देते हुए ।उनका विवाह ऊंचे कुल में अर्थात ब्राम्हण स्कूल के लड़कों के साथ ही करवा करवाऊंगा और मैं उसे अपनी पुत्री का दर्जा दूंगा। उनकी शादी के समय सारा खर्च मैं स्वयं उठाऊंगा। और उन पुत्रियों का कन्यादान भी मैं ही करूंगा। मेरे ऊपर एक आपदा आ गई है। ऐसा करने से ही मेरी इस विपदा का समाधान होगा।
राजा की आज्ञा पाते ही सेवक नगर में घूम- घूम कर नगाड़े को पीट-पीटकर। यह घोषणा करने लगा। वह घोषणा करता हुआ पूरे राज्य में घूम गया। पूरे राज के घूमने के बाद नगर के कोने-कोने में घुमा। परंतु ,एक भी ऐसा ब्राह्मण नहीं मिला। जिसने अपनी बेटी को राजा को देने के लिए तैयार हो। शाम होने के बाद वह सेवक पूरी सत्यता राजा को सुनाया। इन बातों को सुनकर राजा बहुत उदास हुआ। अगले दिन राजदरबार का कार्यकाल चल ही रहा था। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण जिसकी आठ कन्याएं थीं उन कन्याओं का उम्र भी भिन्न-भिन्न था। वह वृद्ध ब्राह्मण फटे पुराने वस्त्रों में राज दरबार के द्वार पर आकर। द्वारपालों से विनती करने लगा। वह कहने लगा कि मैं अपनी सभी बेटियों को राजा मित्र जीत को बेटी स्वरूप समर्पण करने के लिए सहमत हूं। मैं अत्यंत गरीब हूं। इनकी विवाह करने में सक्षम नहीं हूं। अतः, राजा से मेरी मुलाकात करवा दो । अथवा मेरा यह संदेश राजा तक पहुंचा दो। एक द्वारपाल, उस वृद्ध ब्राह्मण को वही रोके रखा। तथा दूसरे द्वारपाल ने अति शीघ्रता के साथ राज दरबार में जाकर । यह समाचार मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री को दिया। मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री, राजा को यह सारी बातें बताई। राजा बहुत ही खुशी के साथ झूमने लगा । राजा ने उसी क्षण आज्ञा दिया। कि उस ब्राह्मण को पूरे सम्मान के साथ राजमहल में ले जाए जाए। राजदरबार खत्म होने के बाद। उस वृद्ध ब्राह्मण और राजा के बीच बातचीत हुआ । उस बातचीत में ब्राह्मण के सभी शर्तों को राजा मानते हुए। उन्हें धन वस्त्र सोना देकर। उनकी आठों बेटियों का स्वयं अपनी बेटी के रूप में स्वीकार किया। इसी दौरान राजा मित्र जीत लगभग छः माह पूर्ण कर चुका था। देखते ही देखते। यह छः माह कैसे बीत गए ।राजा को पता भी नहीं चला। परंतु अश्वमेध यज्ञ की संपूर्ण तैयारी नहीं हो सकी। राजा को यह याद भी नहीं रहा कि कुसुमपुर के मुख्य आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि ने मुझे छः माह तक का ही समय दिया था। अन्यथा बाबा किसी दूसरे द्वीप में चले जाएंगे। तभी अचानक राजा को बाबा शांडिल्य ऋषि की बातें याद आता है। तब तक बाबा सैंडल ऋषि के अनुसार काफी देर हो चुका है।
क्रमशः -( इस के आगे क्या हुआ….? यह जानने के लिए पढ़ें। नवमां अध्याय ।)
लेखक : – नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अंबर मित्र जीत
“मिलते हैं ।अगले अध्याय में…………. शुक्रिया”