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आर्यपुत्र पौराणिक कथा (उपन्यास) अध्याय… 6

नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अंबर मित्र जीत 

“क्रौंच द्वीप के राजा मित्र जीत का बाबा शांडिल्य ऋषि से कुसुमपुर में मुलाकात और पुत्र प्राप्ति यज्ञ के लिए यज्ञ कराने का अनुरोध।”

वह नौजवान भगवाधारी सन्यासी देखते ही देखते बहुत तेजी के साथ एक बहुत ही खूबसूरत ,सबसे ऊंची बनी हुई कुटिया की तरफ दौड़ता हुआ जाता है। और कुछ देर बाद वहां से तीन और सन्यासी जो कि वे लोग भी भगवा केसरिया रंग के  राम नाम और वैदिक मंत्र लिखा हुआ । वस्त्र धारण किए हैं। वहां तत्काल पहुंचते हैं। एक के हाथ में जल पात्र । दूसरे के हाथ में पानी की सुराही, तथा तीसरे के हाथ में अनेकों प्रकार के फल। राजा मित्र जीत के स्वागत के लिए लाई जाती है। वही तत्क्षण नौजवान भगवाधारी भी वहां आकर। राजा को सूचना देता है। दोनों हाथों को नीचे की ओर इशारा करते हुए।वह कहता है।

नौजवान भगवाधारी बोलता है । ” महाराज मित्र जीत ! अभी , बाबा शांडिल्य ऋषि ध्यान मग्न हैं। वहां बैठे हुए आचार्य के द्वारा मुझे यह सूचना दिया गया है कि जैसे ही उनका ध्यान टूटेगा। आपसे उनकी मुलाकात करवा दी जाएगी। फिलहाल , आप जलपान करें। आपकी सेवा में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं होगी। आप अभी यहीं विश्राम करें। आपलोग बहुत दूर से चलकर आए हैं। हम लोगों की प्रयास होगी कि जितनी जल्दी हो सके। बाबा शांडिल्य ऋषि से आपकी मुलाकात करवा दी जाए।”

इतना कहकर। वह नौजवान भगवाधारी, फिर से उसी कुटिया की तरह चला जाता है। इधर राजा मित्र जीत मंत्री पंडित दीनबधु शास्त्री और सेनापति वीर सिंह तीनों बैठकर बातचीत कर रहे होते हैं। ये लोग अपने अपने स्तर से कुसुमपुर की इस प्राचीन कुटिया के निर्माण और वातावरण का निरीक्षण भी कर रहे हैं। कुटिया के अंदर अनेकों तरह के दुर्लभ विशेषताएं हैं। जिसे और कहीं नहीं देखा जा सकता। अनेकों तरह के पालतू पशु एवं पक्षियों के साथ हर प्रकार की जड़ी बूटियां। हर आयु के शिष्य। यहां वेद अध्ययन एवं शिक्षा ग्रहण करने के लिए रहते हैं। यह सभी ब्रह्मचर्य व्रत को भी पालन करते हैं। सभी शिष्यों के सर मुंडे हुए हैं और सभी के माथे पर एक बहुत ही लंबी चौड़ी लटकती हुई चोटी। जिसे सीखा कहा जाता है। उसे भी देखा जा सकता है। इस आश्रम के आंगन में मोरो का नित्य और तोतों की मीठी बोली भी सुना जा सकता है। वहीं विचरण करते मृग और हिरण बिना किसी बंधन के आश्रम के प्रांगण में घूम रहे हैं। वही राजा मंत्री और सेनापति वहां की बनाई हुई दीवारों में की गई शिल्प; कला कृतियों को देखकर भी हैरान हैं। जिसे सिर्फ लकड़ी और पत्थरों से तराशा गया है ।बड़े-बड़े राजाओं के घर में भी इस तरह के दुर्लभ कलाकृतियां दिखना असंभव सा है। इस तरह की प्रकृति दृश्य, इस आश्रम के कई जगहों पर प्रस्तुत हैं। राजा मित्र जीत और मंत्री बात करते ही रहते हैं कि नौजवान भगवाधारी सन्यासी पुनः तेजी के साथ उसी कुटिया में प्रवेश करता है । जहां राजा मित्र जीत अपने मंत्री और सेना के साथ चटाई पर बैठकर विश्राम कर रहे होते हैं । तभी नौजवान भगवाधारी सन्यासी निसंकोच , उस कुटिया के अंदर प्रवेश करके। राजा को इशारा करता है।

नौजवान भगवाधारी सन्यासी बोलता है। “महाराज ! मित्र जीत ! आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि जैसे ही आपके बारे में जाना कि आप स्वयं आज इस आश्रम में पधारे हैं। वैसे ही आपको आदर के साथ लाने के लिए आज्ञा दिया है। आप सकुशल शीघ्र ही आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि  से मिलें । मैं आपको वहां ले चलने के लिए आया हूं। अतः ,अविलंब जल्दी चले।”

राजा मित्र जीत, मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री और सेनापति वीर सिंह वे तीनों उस कुटिया से निकलकर। उस नौजवान भगवाधारी के साथ उत्तर दिशा की ओर उस प्रधान कुटिया की तरफ जाते हैं। जहां आचार्य बाबा शांडिल्य ऋषि, इन तीनों की प्रतीक्षा बैठकर कर रहे हैं। क्योंकि कुछ देर पहले बाबा शांडिल्य ऋषि योग साधना से उठे हैं। उससे पहले ध्यान मग्न थे। तभी इन तीनों का आगमन बाबा शांडिल्य ऋषि की विचित्र कुटिया वाली एकांत कक्ष में होता है। बाबा शांडिल्य ऋषि सफेद रंग के वस्त्र धारण किए हुए हैं। कुटिया के अंदर ही एक ऊंची चबूतरा बनाया गया है । बाबा शांडिल्य ऋषि उसी चबूतरे पर विराजमान हैं। दोनों पैर ऊपर करके पद्मासन में बैठे हैं। बाबा के गले में तुलसी और रुद्राक्ष के मालाएं उन्हें सुशोभित कर रहा है। मस्तक पर वैष्णवी तिलक यह बता रहा है कि बाबा अतुल्य हैं। नीचे कई चटाई बिछाया हुआ है। तभी, राजा मित्र जीत अपने सेनापति और मंत्री के साथ अंदर प्रवेश कर। बाबा शांडिल्य ऋषि के चरण स्पर्श करते हैं । प्रणाम करते हैं। उसके बाद मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री तथा उसके बाद सेनापति वीर सिंह, बाबा शांडिल्य ऋषि को ये तीनों प्रणाम करते हैं। इन तीनों को बाबा “आयुष्मान भव:” कह कर आशीर्वाद देते हैं।

बाबा शांडिल्य ऋषि चटाई की ओर इशारा करते हुए बोलते हैं।”आप सभी यहां विराजें । आप सभी का स्वागत है”

यह तीनों (राजा, मंत्री और सेनापति) बारी बारी से जमीन पर बिछाई गई तीनों चटाई पर आसन ग्रहण करते हैं।

फिर, बाबा शांडिल्य ऋषि राजा की ओर देखते हुए बोलते हैं।”कैसे आना हुआ ? राजन ! सब कुशल मंगल है ना ! आपके कुटुंब जन ! आपकी प्रजा और आप सभी लोग।

तभी, राजा मित्र जीत बाबा शांडिल्य ऋषि की ओर देखते हुए बोलता है।” नहीं…! गुरुदेव…! सब कुशल मंगल नहीं है। मेरी कष्ट लगातार बढ़ती जा रही हैं। आप तो जानते ही हैं मैं पुत्र वियोग की पीड़ा कई सालों से झेल रहा हूं मैंने तीन शादियां की। फिर भी मुझे एक भी संतान नहीं है। मैं निसंतान हूं। इन सबके बावजूद कल से मेरी चिंता कुछ अधिक तक बढ़ गई है। जब मैंने दो सपने देखे।”

आचार्य बाबा सैंडल ऋषि राजा की ओर देखते हुए बोलते हैं।” राजन ! यह संसार रहस्यों से भरा पड़ा है । यहां हर कोई अपने कर्मों के बंधनों का दास है। यह सब विधि का विधान है। जो विधाता ने जिसके हिस्से में जो लिखा है। वह उसे भोगना पड़ता है। हरजीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता है और किया है । वही ही तुम्हारे साथ भी हो रहा है। इसमें दुख के समय अत्यधिक विचलित नहीं होनी चाहिए। और सुख- आनंद के समय अधिक प्रफुल्लित नहीं होनी चाहिए। सृष्टि की रचना के समय दुख और (सुख )आनंद ये दो तरह की अनुभूतियां बनाई गई। इन सबके बाद इस संसार में माया और महामाया का भी प्रभाव है।

राजा मित्र जीत हाथ जोड़कर बोलता है ।”जी…! गुरुदेव..!”

फिर, बाबा शांडिल्य ऋषि अपनी आंखों को बंद कर पुनः खोलते हैं और पूछते हैं ।”तुमने कब और कैसे सपने देखे?”

तब राजा मित्र जीत बाबा शांडिल्य ऋषि की आंखों में आंखें मिलाकर बोलता है।” मैंने कालरात्रि में दो सपने देखे।”

क्रमशः  – (आगे क्या हुआ यह जानने के लिए पढ़ें सातवां अध्याय। इसी तरह हम से जुड़े रहे)

लेखक नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अम्बर बर मित्र जीत

मिलते हैं अगले अध्याय में…. शुक्रिया….

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प्रबंध निदेशक/समूह सम्पादक दि ग्राम टुडे प्रकाशन समूह

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