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आर्यपुत्र पौराणिक कथा (उपन्यास)….. अध्याय–2

लेखक :- नागेंद्र कुमार पांडेय….. (अंबर मित्रजीत)

“क्रौंच द्वीप के राजा मित्र जीत का सन्यास धारण करने की इच्छा और सिंहासन पर ही सोते हुए सपने देखना। सपने में एक कस्तूरी हिरण के शिकार के लिए पीछा करना “

तभी, विश्राम कक्ष में राजा मित्र जीत अपने सबसे करीबी मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री को देखकर भावुक होकर पुनः रोने लगते हैं। इसके बाद पंडित दीनबंधु शास्त्री दोबारा अपने सवाल को पूछते हैं।

मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री बोलते हैं। “महाराज…!!! यह क्या अनहोनी है? मैं अपने नेत्रों से कौन सा अशुभ और अमंगल होने का सूचक देख रहा हूं।” क्रौंच द्वीप के सम्राट, जिसे दुनिया देव तुल्य समझती है ।लोगों का दर्द, कस्ट, पीड़ा अपने ऊपर उठाने वाले यशस्वी सम्राट को किस बात की परेशानी है ।क्या हुआ.?”

राजा मित्र जीत -“एकदम शांत अवस्था में चुपचाप वही सिंहासन से उठकर खड़े हैं।”

मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री बोलते हैं। -“मुझे बताएं। राजन! मैं आपके साथ हर परेशानी में हर कष्ट में हमेशा खड़ा रहा हूं और इस समय भी खड़ा हूं।”

राजा मित्र जीत- “दो कदम सिंहासन से आगे बढ़कर खिड़की की तरफ चलते हैं। फिर,अपने पीले रंग के कमर से नीचे लटकती हुई गमछे को अपने दाहिने हाथों से उठाकर अपने आंखों से बहते हुए आंसुओं को पूछते हैं। फिर राजा मित्र जीत अभी तक एकदम शांत मुद्रा में ही है।”

मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री फिर से राजा मित्र जीत के पीछे -पीछे दो कदम आगे चलते हुए राजा से एक बार फिर आग्रह करता है।

मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री बोलता है। “हे महाराज !मैं यह चाहता हूं कि किस बात की परेशानी आपको खाए जा रही है। आप किस चिंता में डूबे हुए हैं । ऐसी स्थिति में राज दरबार के कार्यों में व्यवधान उत्पन्न  होने से प्रजा का कष्ट बढ़ेगा और प्रजा के कष्ट होने से आपकी दूसरी तरह की तकलीफें और बढ़ेगी ।अतः, महानुभाव  ! सम्राटों के सम्राट ! आप मुझे बताएं मैं यथाशीघ्र आपकी परेशानी का समाधान करने का पूरा – पूरा प्रयास करूंगा।”

तब राजा मित्र जीत पीछे मुड़कर। अपने मंत्री के तरफ देखते हुए। अपने दाहिने हाथ से सिंहासन की ओर इशारा करके बैठने के लिए कहते हैं । खुद भी वही सिंहासन पर बैठते हैं। मंत्री पंडित दीनबधु शास्त्री राजा मित्र जीत की तरफ बहुत ही आश्चर्य भरी नजरों से देख रहे हैं।

राजा मित्र जीत बोलते हैं। “आप मेरे सच्चे मित्र हैं । मेरे हृदय के सबसे करीब हैं ।मैं आज तक कोई भी निर्णय बिना आपके सहमति के नहीं लिया है । मैं जब भी सिहासन पर बैठा तो राजधर्म का पालन किया है और अन्यत्र दूसरे स्थानों पर मित्र धर्म का पालन बहुत ही सुंदरता के साथ निभाया है।आपसे मेरी कोई भी  बात नहीं छुपी है। यहां तक कि मैं अपने व्यक्तिगत संबंध या परेशानियों को भी आप खास मंत्री जानो और मित्रों का सहयोग लिया है। आप लोगों से कोई भी बात आज तक नहीं छुपाया और ना ही किसी भी बात को मैं आपसे गुप्त रखा। आप तो जानते ही हैं कि मैं निसंतान होने की पीड़ा से मुक्त नहीं हो सका इससे मुक्त होने के लिए मैंने तीन शादियां की।जब मेरी पहली पत्नी रंभा ! मां नहीं बनी ।तब मैं अंबा और जगदंबा, इन दोनों से भी शादियां की। परंतु बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि उन दोनों से भी मुझे एक भी बच्चा अभी तक पैदा नहीं हुआ। अब तो मुझे लगता है कि मैं अपनी तीनों पत्नियों के साथ सन्यास ग्रहण कर लूं और तीर्थ यात्रा व देशाटन के लिए राजमहल का हमेशा के लिए परित्याग कर दूं।”

राजा मित्र जीत इन बातों को बहुत ही निराश स्वर में बोलते हैं।

 तब ,मंत्री पंडित दीन बंधु शास्त्री राजा मित्र जीत के तरफ दोनों हाथों को जोड़ते हुए बोलते हैं। “हे सम्राटों के सम्राट !!! महानुभाव!! अगर आप इस तरह से अपनी को लाचार, निस्सहाय और असहाय महसूस कर ,कर ऐसे- ऐसे वाक्यों का प्रयोग करेंगे तो जरा सोचें उनका क्या होगा? जो इस राज्य के सच में दीन- हीन नहीं और निर्धन है़। आपको पता है ना ! पश्चिम से यवनों और म्लेच्छो का आक्रमण भी समय समय से बढ़ता रहता है। अगर ऐसी हालत हुई तो राज्य कमजोर पड़ जाएगा और प्रजा के साथ सभी मंत्री गण मलेच्छो या यवनों के द्वारा बंदी बना लिए जाएंगे।”

मंत्री पंडित दीनबंध शास्त्री अपनी तरफ से राजा मित्र जीत को बहुत समझाते हैं और बहुत समझाने के बाद अन्तोगतवा समझाने में सफल हो जाते हैं ।इस तरह राजा को एक बार फिर संतुष्ट करके प्रसन्न करते हैं।

मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री राजा से हाथ जोड़कर आग्रह करते हैं कि हे राजन ! “आज आप इसी विश्राम कक्ष में विश्राम करें। राजकाज का काम हम सभी मंत्री जन संभाल लेंगे।”

इतना कहकर मंत्री पंडित दीनबधु शास्त्री राज दरबार की ओर निकल जाते हैं। उस दिन राज्य दरबार का कामकाज किसी तरह सभी मंत्री मिलकर संभालते हैं। किसी तरह राज दरबार का समय भी खत्म हुआ सभी मंत्री वापस अपने घर गए।

अब दोपहर ढलने को है । राजा विश्राम कक्ष में सोचते हुए शाम तक सिंहासन पर ही बैठे-बैठे बिता दिया।अब हर तरफ संध्या के आगमन के साथ ही अंधेरा छाने लगा राजा मित्र जीत सिंहासन पर बैठे ही बैठे सो गए।

राजा मित्र जीत सिंहासन पर बैठे- हीं -बैठे  गहरी नींद में चले जाते हैं। जहां राजा एक स्वप्न देखते हैं कि “मैं अपने रथ पर सवार होकर पूरे सैनिक दल के साथ जंगल के तरफ शिकार के लिए निकला हूं । मेरे साथ मेरे सभी मंत्री और सेना तथा सेनापति एवं सभी सलाहकार भी हैं। मैं एक अनजान जंगलों में भटकता हुआ, चला जा रहा हूं। तभी कुछ योजन की दूरी तय करने पर मुझे एक कस्तूरी हिरण दिखाई देती हैं। बिना सोचे विचारे अपने तरकश से कुछ तीरों को निकाल कर अपने धनुष से उस कस्तूरी हिरण के तरफ चलाता हूं। दो तीर उस कस्तूरी हिरण के आगे तथा एक तीर उसके पीछे जाकर रह जाता है। तभी मैं पुन: अपनी तरकश से इस बार पांच तीरो उस कस्तूरी हिरण पर प्रहार करता हूं। परंतु, दुर्भाग्य है कि एक भी तीर उस हिरण को नहीं लगती है और वह हिरण अपनी जान बचा कर पूरब दिशा में भागने लगती है। पूरब दिशा घने जंगलों के साथ ऊंची ऊंची पहाड़ियों से घिरा हुआ क्षेत्र है। मैं बहुत ही तेजी के साथ उसे हिरण का पीछा करना चाहता हूं। परंतु, मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूं। मेरे साथ सिर्फ मेरा रथ और सारथी है।

सारथी मुझसे बोलता है ।” महाराज…!! अब आगे रास्ता बहुत ही दुर्गम और पथरीला है रथ नहीं जा सकता है।”

तब मैं उस रथ के सारथी को उसी जगह पर रथ के साथ रुक कर प्रतीक्षा करने को कहता हूं।

अब रथ में जोते हुए एक घोड़े को जो उजले रंग का है। अपने तलवार से उसका जोता हुआ, लगाम काटकर रथ से अलग करके। उस कस्तूरी हिरण का पीछा करने के लिए उस उजले घोड़े पर बैठकर उस हिरण का पीछा करता हूं। फिर उसी घने जंगलों एवं पहाड़ियों में तेजी के साथ पीछा करता हूं। हिरण बहुत आगे निकल चुकी है। परंतु, मैं अपनी जिद पर अड़ा हूं। आज जो हो जाए मैं इस हिरण का शिकार करूंगा ही करूंगा और उस कस्तूरी हिरण  का पीछा करता हुआ। अब उसके बहुत ही नजदीक पहुंचने वाला हूं। तभी उस कस्तूरी हिरण के तरफ लगातार धनुष से कई तीर चलाता हूं ।हर बार वह कस्तूरी हिरन अपनी जान बचाते हुए उछल कर मेरे तीर के निशानी से भाग जाती है। जितनी बार वह अपनी जान बचाकर भागती है उतनी ही बार मेरे अंदर क्रोध का ज्वाला फूटता है। अब तकरीबन घने जंगल एवं पहाड़ी क्षेत्रों को पार करके एक नए राज्य की सीमा में प्रवेश कर चुका हूं ।यहां हर तरफ केले का बगीचा दिख रहा है। यहां का हर क्षेत्र बहुत ही रमणीय मालूम पड़ता है । अब मेरे तरकश से सभी तीर भी खत्म हो चुके हैं। अब मैं एक ही तीर को उस हिरण के शिकार करने के लिए अपने धनुष पर धारण किए हुए हुं।

क्रमशः (तीसरी अध्याय को पढ़ने के लिए इसी तरह हम से जुड़े) रहें

लेखक नागेंद्र कुमार पांडे (अंबर मित्र जीत)

शुक्रिया…..

मिलते हैं अगले अध्याय में…….

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प्रबंध निदेशक/समूह सम्पादक दि ग्राम टुडे प्रकाशन समूह

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