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आर्यपुत्र पौराणिक कथा (उपन्यास) अध्याय…. 1″

लेखक :- नागेंद्र कुमार पांडे उर्फ अंबर मित्र जीत

“आर्यपुत्र पौराणिक कथा” (उपन्यास) का सारांश

यह उपन्यास पूर्व जन्म पर आधारित है। जिसमें एक तरफ एक नाग के पूर्व और पश्चात जन्म है। वहीं दूसरी तरफ गंधर्व और परियों की पूर्व जन्म की कहानी है। इसमें रोमांचक प्रेम कथा का भी वर्णन है। तथा समुद्री डकैत के रूप में अदम्य साहसी संग्राम सिंह, जोकि कलिंग देश से निकाले जाने के बाद समुद्री और नदी के क्षेत्र में अपना समुद्री डकैतों का साम्राज्य कायम करता है। इस उपन्यास में कई प्राचीन राष्ट्रों एवं द्वीपों के राजाओं के आपसी मतभेद और मैत्रीपूर्ण संबंधों को दिखाया गया है। इस उपन्यास में सिंहल द्वीप के राजा विदेशी शक्ति द्वारा मगध और आसपास के द्वीपों पर आधिपत्य तथा उसके अत्याचार को भी दर्शाया गया है। वहीं दूसरी तरफ गोपीनाथ नामक एक आचार्य जोकि अपने मंत्रों की शक्ति से नाग का नाग मणि प्राप्त कर। दुनिया के सबसे शक्तिशाली तांत्रिक बनकर कई राष्ट्रों पर कब्जा कर लेता है। इस कहानी में नाग के पूर्व जन्म और उसकी प्रेमिका के हृदयविदारक जुदाई की लम्बी दास्तान है । वहीं दूसरी तरफ गंधर्व एवं परियों के पुरनम अश्कों की जुदाई और मिलन की कहानी है। इस कहानी में प्राचीन तथ्यों, घटनाओं को दिखाते हुए श्राप और वैदिक अनुष्ठानों, मंत्रों की दिव्य शक्ति तथा पूर्व जन्म का भी वर्णन किया गया है। प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति को जानने और समझने के लिए पढ़िए।” आर्यपुत्र पौराणिक कथा” ।

अब आगे…….

“राजा मित्र जीत का पुत्र वियोग” :-

सुबह का समय है। सूरज की किरने अपने लालिमा लिए हिमालय की तराई को प्रकाशित कर रही हैं। आज का दिन बहुत ही साफ है। हर तरफ सूरज की किरने यहां कोहरे की धुंध रूपी अंधेरा को हटाकर प्रकाशित कर रही हैं। चिड़ियों की बोलने की आवाज एक अलग तरह की वातावरण को प्रदर्शित कर रही है।

महान यशस्वी और प्रतापी राजा जोकि क्रौंच द्वीप के चक्रवर्ती राजा के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त किए, क्रौंच द्वीप के यशस्वी सम्राट मित्रजीत है। इनकी जयघोष इनके राज्य क्रौंच द्वीप के पूरब- -पश्चिम- उत्तर और दक्षिण सभी तरफ है। राजा का राज हिमालय के तराई में तकरीबन 16 योजन आज के192 किलोमीटर में फैला हुआ है।

राजा मित्र जीत के राज्य में पेड़ों की बहुत ही अधिकता है। इनके राज्य में दो घने जंगल भी हैं  और इनके राज्य में तकरीबन सात नदियां भी बहती हैं। लगभग हिमालय के सबसे पश्चिम वाली चोटी इनके राजधानी के एकदम करीब है। राजा मित्र जीत की राजधानी चंपापुर है। जोकि आर्यावर्त के उत्तर क्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध नगरों में से एक है।महान सम्राट मित्र जीत का राजमहल कई दुर्लभ तरह के पत्थरों से निर्माण किया गया है।सम्राट मित्र जीत के राज महल के निचले हिस्से को स्वर्णिम रंग के पत्थरों से तराशा गया है।वही बीच वाले को सफेद रंग के संगमरमर से अलंकृत किया गया है।

वही ऊपर वाले भाग को लालमणि तथा हरे रंग के दुर्लभ रत्नों से पीरों कर बनाया गया है। सुबह किरणें ने जब राज महल पर पूरब दिशा से पड़ती हैं तो मानो राजमहल अचानक से प्रकाशित होता हुआ प्रतीत मालूम पड़ता है। वही चांदनी रात में जब चांद की किरने आसमान से नीचे की ओर आती हैं  तब भी ऐसा प्रतीत होता है कि मानो जुगनू से सजाया हुआ यह राजमहल है। जिसमें हर तरह के पत्थर अपनी खासियत को प्रदर्शित करती हैं।

स्वर्णिम पत्थर स्वर्ण की भांति चमकते हैं तो सफेद संगमरमर चांदी की तरह आभास पड़ती है। वही हरे रंग की दुर्लभ पत्थर यह साबित करता है कि पेड़ों की हरियाली से बिल्कुल प्राकृतिक रूप से यह राजमहल वाबस्ता है। राजा के राज महल को आयताकार रुप में अलंकृत किया गया है। और इसे अनेकों तरह की पत्थरों एवं धातुओं के योग से मनाया गया है। चंपापुर के अनेकों खासियतो में से यह भी एक खासियत है।

वही राजा के राज महल के चारों तरफ तीरंदाजो को तीर चलाने और छिपने के लिए मोटे -मोटे लकड़ियों से बनाया हुआ मोर्चे दार मोर्चा भी है। इन मोर्चे दार घेराबंदियों का प्रयोग युद्ध के समय किया जाता है। जब दुश्मन अचानक से इस नगर पर हमला करें। तब यह तीरंदाज दुश्मनों को नाकाम करने और मार गिराने में सक्षम हैं।

वही चंपापुर को भी एक बहुत ही बड़े दीवार से घेरा गया है। चंपापुर में प्रवेश करने का मात्र एक ही रास्ता है।जो पूर्व से मुख्य द्वार के रूप में बनाया गया है।मुख्य द्वार से कुछ ही दूरी पर चंपापुर का सुप्रसिद्ध शिव जी का एक बहुत ही भव्य मंदिर है। वैसे तो क्रौंच द्वीप में सनातन हिंदू ,बौद्ध धर्मावलंबी और जैन धर्मावलंबी सभी आपसी भाईचारे के साथ रहते हैं।परंतु राजा मित्र जीत एक शिव भक्त हैं।हालांकि चंपापुर में दो बड़े-बड़े बौद्ध स्तूप भी हैं।

ऐसा माना जाता है कि इन बौद्ध स्तूप का निर्माण भगवान बुद्ध के जमाने में ही किया गया था।जब  भगवान बुद्ध यहां अपना उपदेश दिए थे।यह दोनों बौद्ध स्तूप राजा के राजमहल से दक्षिण दिशा में अवस्थित है। वही राजमहल के पश्चिम में एक जैन मंदिर है।इस जैन मंदिर में भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई, भगवान अरिष्ठनेमी  की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया है।

इसमें जैन धर्म के लोग नियमित रूप से पूजा -अर्चना करते हैं।यही हाल राजमहल से पूरब भगवान शिव की मंदिर तथा राजमहल से दक्षिण बौद्ध स्तूप ओ का भी है। चंपापुर के मुख्य द्वार पर द्वारपाल हमेशा अपनी उपस्थिति बहुत ही मजबूती के साथ करते हैं।इस राज महल में बिना द्वारपालों के अनुमति के एक पक्षी का भी प्रवेश करना असंभव है।

हर तरफ राजमहल के अंदर अथवा बाहर या चंपापुर के किसी भी क्षेत्र में सैनिक हमेशा मुस्तैद रहते हैं।राजा मित्र जीत की आयु लगभग 50 साल से अधिक है।राजा मित्र जीत ने तीन वैवाहिक संबंध बनाएं हैं। परंतु राजा मित्र जीत के एक भी संतान नहीं है।नहीं पुत्र और ना ही पुत्री।राजा मित्र जीत के तीनों पत्नियां “रंभा ,अंबा और जगदंबा “में से किसी को भी मां बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। सम्राट मित्र जीत अपने राजमहल के विश्राम कक्ष में विश्राम कर रहे  हैं।कुछ ही दूरी पर इनका उधान है।जहां चिड़ियों की बोलने की मधुर आवाज बहुत ही मंत्रमुग्ध कर रही है।

वहीं दूसरी तरफ शिवालय से घंटी बजने की आवाज साफ सुनाई दे रही है।परंतु मित्र जीत पीली धोती और गुलाबी रंग का गमछा कांधे पर लपेटे हुए  हैं। गले से मोतियों की माला, सीना और नाभि के तरफ लक लटकती हुई दिखाई दे रही हैं। निराशा के अंधकार में अपने दोनों हाथों को मस्तक पर रख कर गहरी चिंता में डूबे हुए हैं। राजा को हमेशा एक ही चिंता खाई जाती है कि मेरे बाद मेरे राज का क्या होगा? मेरे राज्य के लोगों का क्या होगा?

राजा जब भी गंगा में स्नान करने जाते हैं अथवा शिव मंदिर में पूजा करने जाते हैं। तब इन दोनों जगह पर एक ही वरदान मांगते हैं। इनके मन में हमेशा यही भाव रहती है कि “हे गंगे मां मुझे एक पुत्र दे। शिव मंदिर में भी उसी बात को दोहराते हैं। हे शिव भोलेनाथ सृष्टि के संचालन कर्ता मुझे एक पुत्र दें। परंतु, आज 50 साल से अधिक होने को है। निसंतान की पीड़ा से राजा मित्र जीत आज भी मुक्त नहीं हुए हैं।”

तभी राज महल के प्रधान द्वार पर लगे ढंग की आवाज जोर जोर से बजने लगती है।यह डंका दो ही स्थिति में बजाई जाती है। सुबह के समय राजदरबार लगने से पहले और दूसरे समय किसी विशेष सूचना को लोगों तक पहुंचाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। इस डंक का प्रयोग अभी राज दरबार के प्रारंभ होने का समय हो चुका है। इस कारण से इस डंके की आवाज जोर-जोर से सुनाई दे रही है। “दड़ाम दड़ाम दड़ाम।”

सभी मंत्री एवं राज्य पंडित डंके की आवाज सुनकर अपने नियमित समय पर राजमहल में उपस्थित होकर अपनी उपस्थिति को स्पष्ट करते हैं। हरेक कर्मचारी अधिकारी और दरबारी अपने नियमित समय से अपने आसन पर आकर बैठा हुआ है। परंतु, अभी तक राजा मित्र जीत अनुपस्थित हैं।

कुछ समय की प्रतीक्षा करने के बाद पंडित दीनबंधु शास्त्री नाम के राजा मित्र जीत के सबसे करीबी मंत्री राजा के विश्राम कक्ष की तरफ तेजी के साथ विश्राम कक्ष में प्रवेश करते हैं। वहां राजा अपने आंखों के आंसुओं को पूछ रहे हैं। अपने अतीत की निसंतान की पीड़ा को वर्तमान में महसूस करते हुए अपने आंखों से आंसू पूछते हुए बहुत ही गंभीर अवस्था में व्यथित हैं। तभी पंडित दीनबंधु शास्त्री विश्राम कक्ष में प्रवेश करते हैं।

मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री बोलते हैं।

“महाराज चक्रवर्ती सम्राट मित्र जीत की जय हो।”

सम्राट मित्र जीत अपने दोनों हाथ जोड़कर मंत्री पंडित दीनबंधु शास्त्री की ओर अभिवादन करते हैं। परंतु, अपने आंखों से बहते हुए आंसू को छुपा नहीं पाते हैं।

तभी मंत्री पंडित दीनबधु शास्त्री बोलते हैं महाराज आपके आंखों में आंसू कैसे आखिर इसका क्या कारण है।  

शुक्रिया..!!!…

मिलते हैं अगले अध्याय में…

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प्रबंध निदेशक/समूह सम्पादक दि ग्राम टुडे प्रकाशन समूह

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